Sunday, January 8, 2017

स्वयंसिद्धा पर आज मथुरा रेप केस की बात

स्वयंसिद्धा पर आज मथुरा रेप केस की बात भारत में महिलाओं के साथ हर तरफ़ छेड्छाड , बलात्कार, मारपीट और शोषण की घटनायें होती रहती हैं. अभी ताज़ा घटना दिल्ली और बेंगलुरू में लडकियों के साथ छेड्छाड की हुई है. इन घटनाओं को सरकार और सरकार में बैठे लोग लोग आम मानते हैं क्योंकि महिलाओं के साथ कुछ स्थान वर्जित हैं उनमें से कुछ जगहें हैं भीड , रात, और सुनसान जगहें. भीड में अकेली महिला, रात को सडक पर चलती अकेली महिला, सुनन्सान जगह पर बैठी अकेली महिला अक्सर उस आक्रमण का शिकार हो जाती है जिसे बचने की नसीहत उसे हमेशा मिलती है. लेकिन क्या महिलाओं के लिये ऐसी ही जगहें असुरक्शःइत हैं. भीड और रात में अकेली दिखने वाली महिलाओं के अलावा घर जैसे सुरक्षित वातावरण में काम करने वाली, रहने वाली महिलायें क्या सुरक्षित हैं ? आकडे बताते हैं कि भीड , रात, सुनसान जगहों के अलावा बडे पैमाने पर घर के सुरक्षित वातावरण माने जाने वाले वातावरण में भी महिलायें इस तरह की घटनाओं का शिकार होती रहती हैं. महिलाओं को इन स्थितियों से बचने के कई परम्परागत उपाय बताये गये .जिसमें पर्दा करना, भीड भाड की जगहों से बचके रहना, सुनसान जगहों पर ना जाना आदि आदि हैं. ये सारे उपाय महिलाओं को उनकी नानी , दादी और मां से सीख में मिलते रहे हैं. इस तरह स्थितियों को सामान्य बनाये रखने, घर और बाहर के बीच पुरुष और उसकी गतिविधियों को बडी जगह देते हुए इस सामाजिक वातावरण में अपने को सुरक्षित रखने और करने के प्रयास में महिलाओं ने अपने ऊपर कई तरह के ऐसे सामाजिक बंधन चुपचाप ओढ लिये जिसके नकारातमक पहलुओं से आजतक उन्हें आज़ादी नहीं मिल पायी है. दूसरई तर्फ़ पुरुषों ने महिलाओं के इस अडजस्टमेंट को उनके सामन्य रहन सहन और उनके जीने के तरीके के रूप में एक नियम मान लिया. इन नकारात्मक पहलुओं से पुन; निकलने के लिये पूरी दुनिया की महिलाओं को इसके खिलाफ़ पिछले कई दशकों से ना केवल आवाज उठाने के लिये आगे आना पडा बल्कि बडे पैमाने पर मुहिम छेडनी पडी है. आन्दोलित महिलाओं को अपने अपने देशों के कानूनों में महिलाओं के हक में परिवर्तन के लिये दबाव बनाने पडे, सरकार के खिलाफ़ मोर्चेबंदी करनी पडी. यूरोप और अमेरिका की महिलाओं ने इस संबंध में पूरी दुनिया की महिलाओं की अगुआई की है और उन्हें यह बताया है कि औरतों को भी वही आज़ादी जीने का हक है जिसे पुरुष जीते हैं. महिलाओं की इस मोर्चे बन्दी में आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र संघ उनका सहयोगी बना, जिसने दुनिया भर की सरकारों पर अपने अपने देश की महिलाओं के हक में आगे आने का दबाव बनाया. इन तमाम दबावों के बावजूद भी दुनिया भर की महिलायें,, महिला संगठन अपने अपने देशों में अपनी अपनी सरकारों के ऊपर वहां के कानूनों में बदलाव को लेकर काम कर रही हैं. इन बदलावों में महिलाओं को लेकर हिंसा का मसला सबसे प्रमुख है. भारतीय महिला के आचरण, उसके रहन सहन में, बात चीत, व्यव्हार, समर्पण को लेकर कुछ इस तरह की विशेष व्यख्यायें की गयीं जिसने भारतीय महिलाओं को हमेशा इसके चंगुल में रखा. महिलाओं को लेकर जीवन का नजरिया कुछ ऐसा बनाया गया जिसे स्वयं महिलायें अपने अपने कंधे पर लम्बे समय तक ढोती रही हैं किंतु फ़िर भी महिलाओं के साथ वह सब कुछ होता रहा जिसे हिंसा कहते हैं. भारत में महिलाओं के प्रति हिंसा को लेकर पहला मामला जो अदालत में गया वह था महाराष्ट्र की एक १४ साल की लडकी मथुरा का मामला. इस केस में सेशन कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने यह साफ़ किया कि महिलाओं को लेकर सरकार, अदालतों में बैठे लोगों और बडे पैमाने पर पुरुष वर्ग को महिलाओं, उनके साथ होने वाली हिन्सा,/ व्यवहार को बदलने की जरूरत है. क्या है मथुरा का मामला ----------- – मथुरा का मामला (२६ मार्च १९७२). मथुरा महाराष्ट्र के चन्द्र पुर जिले की एक १४ वर्षीय आदिवासी लडकी थी जो कभी कभी घरेलू काम में सहयोग के लिये नुशी नामक महिला के घर जाया करती. उस घर में उसकी मुलाकात नुशी के भतीजे अशोक हुई. तथ्यों के अनुसार अशोक मथुरा से ब्याह करने का इच्छुक था लेकिन मथुरा के भाई इस विवाह के लिये राजी नहीं थे क्योंकि मथुरा मात्र १४ साल की बच्ची थी और इसी कारण वह मथुरा के भाईयों ने अशोक और उसके परिवार के खिलाफ़ मथुरा को अपहरण की रीपोर्ट थाने में लिखवाने के लिये गये. जहां पुलिस ने अशोक और उसके परिवार को थाने में बुलवाया ताकि पूछ्ताछ की जा सके. पूछताछ के बाद पुलिस ने सबको जाने की अनुमति दी. लेकिन जब मथुरा जाने लगी तो उसे थाने में रुकने के लिये कहा गया और उसके परिवार के अन्य सदस्य बाहर उसका इन्तज़ार करते रहे और उसी समय दो पुलिस वालों गनपत और तुकाराम द्वारा मथुरा का थाने अन्दर बलात्कार किया गया. इस बलात्कार को लेकर लोगों में भारी गुस्सा था इसलिये यह मामला कोर्ट में गया और १ जून १९७४ सेसशन कोर्ट में सुनवाई के लिये गया सेशन कोर्ट अपने फ़ैसले में कहता है - Mathura was 'habituated to sexual intercourse,' her consent was voluntary; under the circumstances only sexual intercourse could be proved and not raपे. १४ साल की बच्ची के खिलाफ़ सेशन कोर्ट का यह फ़ैसला ना केवल गौर करने लायक था बल्कि इसके खिलाफ़ ऊपर की अदालत का दरवाज़ा खटनाने लायक था क्योंकि निचली अदालत ने एक बच्ची की मानसिक अवस्था, उसके खिलाफ़ होने वाले शोषण और उसकी स्थितियों को नजराम्दाज किया था. यही वजह थी कि यह मुकदमा बाम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में अपील में गया और नागपुर बेंच ने सेशन कोर्ट के फ़ैसले को दरकिनार करते हुए दोषियों को ५ साल की सज़ा सुनाई. सितम्बर १९७९ यह मामला देश की सबसे बडी अदालत में गया. जस्टिस तीन जजों की बेंच (Jaswant Singh, Kailasam and Koshal) ने अपने जजमेंट Tukaram vs. State of Maharashtra में महाराष्ट्र पुलिस के तुकाराम और गनपत को दोषी नहीं माना. उन्होंने कहा Mathura had raised no alarm; and also that there were no visible marks of injury on her person thereby suggesting no struggle and therefore no rape.[6] The judge noted, "Because she was used to sex, she might have incited the cops (they were drunk on duty) to have intercourse with her".[8][9] सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया यह फ़ैसला चौकाने वाला था. कोर्ट के इस फ़ैसले ने १४ साल की बच्ची की स्थितियों, उसके शोषण और उसके साथ हुए अन्याय को यह कहकर नज़रान्दाज़ किया था कि मथुरा सहवास की आदी थी. इस तरह कोर्ट का पूरा फ़ैसला सवालों के घेरे में था. कोर्ट के इस फ़ैसले के खिलाफ़ दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रोफ़ेसर उपेन्द्र बख्शी, रघुनाथ केलकर और लोतिका सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को ’ सहवास की सहमति की अवधारणा’ की बात का विरोध करते हुए एक खुला पत्र लिखा. अपने पत्र में उन्होंने कहा कि From the facts of case, all that is established is submission, and not consent... Is the taboo against pre-marital sex so strong as to provide a license to Indian police to rape young girls? तीनो प्रोफ़ेसरों के इस खुले पत्र ने ना केवल दिल्ली बल्कि पूरे भारत में महिलाओं, स्त्रिवादियों और बुद्धीजीवियों को आन्दोलित कर दिया. बडे पैमाने पर महिलायें इस विरोध में शामिल हुईं और इस तरह के मामलों को लेकर गम्भीर काम किया जा सके इसलिये बडी संख्या में महिला संगठनों का बनना भी शुरू हुआ. लोतिका सरकार ने "Forum Against Rape", की स्थापना की जिसे बाद में Forum Against Oppression of Women" नाम से जाना गया. पूरे भारत में सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर महिलाओं के विरोध और सरकार पर दबाव बनाने के बाद इस केस को लेकर सरकार महिलाओं के पक्ष को समझते हुए आगे आयी और उसने The Criminal Law (Second Amendment) Act 1983 (No. 46) ने एक कानूनी प्रावधान किया जिसके द्वारा सेक्शन ११४ (ए) के रूप में को जोडा The The Criminal Law (Second Amendment) Act 1983 (No. 46) made a statutory provision in the face of Section 114 (A) of the Evidence Act made 25 December 1983, which states that if the victim says that she did not consent to the sexual intercourse, the Court shall presume that she did not consent as a rebuttable presumption.[6][15][16] New laws were also enacted following the incident. The Section 376 (punishment for rape) of the Indian Penal Code underwent a change with the enactment and addition of Section 376(A), Section 376(B),Section 376(C), Section 376(D), which made custodial rape punishable.[17] Besides defining custodial rape, the amendment shifted the burden of proof from the accuser to the accused once intercourse was established; it also added provisions for in-camera trials, the prohibition on the victim identity disclosure, and tougher sentences.[11][18] आगे इस केस और इस केस के दौरान होने वाली प्रतिक्रिया ने सरकार के समक्ष महिलाओं के खिलाफ़ होने वाली हिंसा के एक पक्ष को सबके सामने रखा और सरकार को कानूनी प्रावधान करने , कानून बबाने और बदलाव करने के लिये मजबूर किया. लेकिन इस केस को और इस केस पर सेशन कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर बात करेंगे ....................जारी

Sunday, January 1, 2017

राज्य, स्त्री और उसके आपसी संबन्ध

इस लेख की रूप रेखा मूल रूप से स्त्री, उसकी अस्मिता और समाज के ताने बाने में उसे निबद्ध करने की प्रक्रिया के रूप में तैयार की गयी थी लेकिन भारत में तीन तलाक के मुद्दे ने इस लेख को भारत के संविधान, कानून और भौगोलिक दायरों में बांधने के लिये मजबूर कर दिया. फ़िर भी यह लेख स्त्री, उसके संघर्ष, उसके सामाजिक – आर्थिक अधिकार और उसे तमाम सामाजिक तन्तुओं, रेशों और दायरों में बांधे रखने की अनवरत कवायद को रेखांकित करने की कोशिश करेगा. यह लेख हिन्दू समाज, विधि, संस्कृति, परम्परा और उसके धार्मिक विवेचन के साथ ही साथ ईसाई, सिक्ख, बौध, जैन तथा मुख्य रूप से भारतीय मुसलमान उनकी परम्परा, संस्कृति और विधि के साथ इस्लाम के भारतीय दर्शन के परिपेक्ष्य में भी स्त्री को देखने की कोशिश करेगा. कुलमिलाकर हम इस लेख में स्त्री को समाज के एक धडे के रूप में देखने समझने की कोशिश करेंगे और यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि किस तरह किसी देश का कनून, संविधान और रिति रिवाज स्त्री को उसके अधिकार के लिये आन्दोलित करते हैं................................................................................................................................................ स्त्री और उसके पक्ष को समझने के लिये हमें कुछ मूल तत्वों को बारीकी से समझना होगा. इन मूल तत्वों में धर्म, समाज, राज्य, राज्य स्त्री के संबन्ध, नागरिकता जैसे कुछ आवश्यक बिन्दुओं को गम्भीरता से रेखांकित करना स्त्री के पक्ष को सही मायनों में समझने में मदद करेगा क्योंकि स्त्री का पक्ष कोई एकांगी पक्ष नहीं है जिसे एक सीधी रेखा में विश्लेषित किया जा सके. यह पक्ष एक ऐसा बडा ताना बाना है जिसे समझने के लिये उस हर कोण को समझना जरूरी है जिससे मानव समाज का सरोकार है इसलिये हम सबसे पहले बात राज्य और स्त्री के संबंध और उसके इतिहास से शुरु करेंगे ताकि हम स्त्री के नागरिक पक्ष को पूरी तरह समझ पायें क्योंकि जब हम देश या राज्य की बात करते हैं तब हमें कानून, राजनीति, अर्थ और उससे जुडे अधिकारों को समझना और विश्लेषित करना जरूरी हो जाता है क्योंकि राज्य नागरिकता प्रदान करता है और नागरिक अधिकार देता है यही वजह है कि स्त्री के संबध में राज्य को समझना बेहद जरूरी है क्योंकि आज भी दुनिया के लगभग सभी देशों में स्त्रियां राज्य के सामने अपने पक्ष, अपने विचार और अपने नागरिक अधिकार के लिये आन्दोलित होते हुए एक याचक के रूप में खडी हैं इसलिये जब हम स्त्री की बात करेंगे तो हम स्त्री और राज्य के संबंध को भी समझेंगे और विश्लेषित करेंगे क्योंकि अगर राज्य स्त्री के पक्ष में सही मायने में खडा होगा तो स्त्री की स्थिति वह नहीं होगी जो अधिकतर देशों में स्त्रियों की है. दुनिया का समूचा स्त्री आन्दोलन अपने अपने देशों में स्त्रियों के स्वस्थ नागरिक अधिकारों के लिये लडाई का प्रतीक है और यह लडाई भारत में भी जारी है. यदि स्त्री उसकी उत्त्पति और इतिहास में उसके लिखित चरित्र को समझने की कोशिश की जाये तो कई आश्चर्य जनक तथ्य उभर कर सामने आते हैं और यह तथ्य यह बताते हैं कि लगभग हर समाज, हर देश, हर वर्ग, धर्म और जाति ने लम्बे समय तक अपनी स्त्री आबादी की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक अधिकार का हनन किया है. इसी तरह दुनिया के लगभग सभी समाजों, धर्मों, देशों और जातियों में लम्बे समय तक स्त्री को देखने, उसके बारे में सोचने और उसके प्रति व्यवहार करने का नजरिया कमोबेश एक खास तरह का ही रहा है. राज्य और स्त्री के संबंध को समझने और उसके इतिहास में जाने पर यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि स्त्री और राज्य के संबंध के बीच धर्म भी एक मूल तत्व है क्योंकि धर्म ने समाज को सबसे अधिक आदेशित किया है और भारतीय परिपेक्ष्य में यह आदेश अधिकतर स्त्रियों और दलितों के संबंध में ही दिये गये हैं. इसीलिये धर्म को स्त्री और राज्य के संबंध को लेकर समझना , उसको विश्लेषित करना जरूरी है. दुनिया के हर समाज में स्त्री के प्रति एक खास व्यवहार और उसकी सोच में स्त्री का अस्तित्व उस रूप में निरूपित किया गया जिस रूप में उसके बरक्स खडी आधी आबादी उसे देखना पसंद करती है. मतलब यह कि सत्ता उस आधी आबादी के पास है जो अन्य आधी आबादी को अपने हिसाब से (सुख – सुविधा) गढ सके , उसका उपयोग कर सके ,इसलिये स्त्री को देखने की एक ऐसी दृष्टि बनायी गयी जिसमें स्त्री का अर्थ है उसकी कमनीयता, स्त्री का अर्थ है उसका ममत्व और उसका सेवा भाव. इन तीनों गुण में कहीं भी स्त्री अपने स्व के लिये नहीं है. इन तीन मूल गुणों के साथ समाज में उसकी स्वीकृति ने उसे सामाजिक संरचना के पूरे ताने बाने में सामान्य और स्वस्थ नागरिकता की हैसियत से हमेशा वंचित रखा. सामान्य नागरिकता से वंचन का अर्थ है बराबरी के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों का वंचन. “राज्य’ का निर्माण मानव विकास के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण है. यह एक विकास है जिसने मानव समाज को उसके आगे के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्वरूप को विकसित करने का रास्ता दिखाया. इस पूरी परिघटना ने मनुष्य को एक ऐसी सामाजिक संरचना से परिचय कराया जो मानव समाज को एक सही राजनीतिक व्यवस्था देने में सहायक बना. जिसने मानव जीवन को एक व्यवस्थात्मक सुरक्षा प्रदान करने, उसे मजबूत बनाने में सहयोग दिया. यही वजह कि मानव ने राज्य नामक इस संस्था को ना केवल विशेष महत्व दिया बल्कि इसका उत्तरोत्तर विकास भी किया और इसे नागरिकों की सुरक्षा के हित में सुदढ भी किया. उत्तरोत्तर इन व्यव्स्थाओं ने स्थानीय मानव समूहों, उन समूहों के भौगोलिक,सांस्कृतिक और सामाजिक आधार पर नये नये स्वरूप लिये और राज्य और उसके नियम बनाये. इसीलिये किसी भी राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि राज्य अपने राज्य के प्रत्येक नागरिक को जिसमें स्त्री - पुरुष और वह भी शामिल हैं जिन्हें इन दोनों लिंगों का हिस्सा नहीं माना जाता को ना केवल सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक सुरक्षा प्रदान करेगा बल्कि उन्हें स्वस्थ नागरिकता प्रदान करेगा किंतु मानव सभ्यता के विकास के इस उपक्रम में स्त्रियां नागरिकता के इस अधिकार को पाने में ना केवल पीछे रहीं बल्कि स्त्रियों को कदाचिद इस अधिकार के योग्य भी नहीं समझा गया. मानव सभ्यता के विकास का इतिहास स्त्रियों की नागरिकता और उसके अधिकार के संबंध में ना केवल बेहद संकीर्ण रहा है बल्कि अमानुषिक और बर्बर भी रहा है. प्रागैतिहासिक काल का इतिहास यदि छोड दिया जाय तो मानव सभ्यता का लिखित इतिहास स्त्रियों के संबंध में दोहरे माप दण्डों,उसके अधिकारों के हनन की उक्तियों से भरा हुआ एक दस्तावेज है . दुनिया के लगभग हर समाज में स्त्रियों के प्रति परिवार , समाज और राज्य का व्यवहार उनके लिये एक ऐसे दुष्चक्र का सृजन करता रहा है जिससे स्त्रियों के निकलने की कवायद अभी तक जारी है. दुनिया भर में चल रहे महिला अन्दोलन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी अधिकतर देशों में महिलाओं के नागरिक अधिकार पूरे नहीं हैं. विश्व का लगभग हर देश इस कोशिश में लगा हुआ है कि उसकी महिला नागरिकों को घर के अन्दर समाजिक रूप से और कार्य स्थल पर असमानता, शोषण और नागरिक अधिकारों को लेकर दोहरे मापदण्डों का सामना ना करना पडे. लगभग हर देश अपने अपने यहां महिला आन्दोलन के दबाव में महिलाओं के कानूनी अधिकार को लेकर सजग हो रहे हैं और कपने अपने कानूनों में बदलाव के रास्ते तलाश रहे हैं और उनको लागू करने के सूत्र तलाश रहे हैं. देखा जाय तो यह पडताल का विषय है कि आखिर ऐसा क्यों है? क्या वजह रही है कि हर देश अपने कानूनी विकास के दौर में स्त्रियों को सम्पूर्ण नागरिक मानने में संकोच करते रहे है? माना जाता है कि २०. सदी स्त्रियों और दलितों के संबंध में एक उदारवादी सदी रही है. इस सदी ने स्त्रियों के लिये कई तरह के द्वार खोले हैं. सम्युक्त राष्ट्र संघ की स्थापना और उसके द्वारा दुनिया के विकास शील देशों पर इस बात का दबाव बनाना कि हर देश दलितों और स्त्रियों को लेकर अपने अपने देशों में बेहतरी के लिये ना केवल आगे आये बल्कि अपने अपने कानूनों को उसके हक में बनाने का प्रयास करे , इस बात ने महिलाओं तथा दलितों को सांस लेने की जगह दी है किंतु महिलायें अभी भी लगभग हर देश में अपने अधिकारों और स्वस्थ वातावरण और नागरिक अधिकारों के लिये लड रही हैं. भारत जैसे विकासशील देश के अलावा उन देशों की महिलायें भी अपनी लडाई लड रही हैं जिन्हें हम विकसित देशों की श्रेणी में रखते हैं. देखा जाये तो दुनिया भर की महिलाओं की स्थिति सामाजिक, राजनीतिक रूप से कमोबेश एक सी है हां आर्थिक पटल पर जरूर थोडा विभेद है किंतु अगर आर्थिक स्तर पर अगर बारीक पडताल की जायेगी तो शायद ज्यादा अंतर देखने को नहीं मिलेगा. स्त्री की इन स्थितियों को समझने कि लिये नये दौर पर बात करने से पहले हम पुरानी राजनीतिक व्यव्स्थाओं में महिलाओं की स्थिति पर बात करनी बेहद आवश्यक है ..............................भारत के संदर्भ में बात करने की कोशिश करेंगे.