Sunday, January 1, 2017

राज्य, स्त्री और उसके आपसी संबन्ध

इस लेख की रूप रेखा मूल रूप से स्त्री, उसकी अस्मिता और समाज के ताने बाने में उसे निबद्ध करने की प्रक्रिया के रूप में तैयार की गयी थी लेकिन भारत में तीन तलाक के मुद्दे ने इस लेख को भारत के संविधान, कानून और भौगोलिक दायरों में बांधने के लिये मजबूर कर दिया. फ़िर भी यह लेख स्त्री, उसके संघर्ष, उसके सामाजिक – आर्थिक अधिकार और उसे तमाम सामाजिक तन्तुओं, रेशों और दायरों में बांधे रखने की अनवरत कवायद को रेखांकित करने की कोशिश करेगा. यह लेख हिन्दू समाज, विधि, संस्कृति, परम्परा और उसके धार्मिक विवेचन के साथ ही साथ ईसाई, सिक्ख, बौध, जैन तथा मुख्य रूप से भारतीय मुसलमान उनकी परम्परा, संस्कृति और विधि के साथ इस्लाम के भारतीय दर्शन के परिपेक्ष्य में भी स्त्री को देखने की कोशिश करेगा. कुलमिलाकर हम इस लेख में स्त्री को समाज के एक धडे के रूप में देखने समझने की कोशिश करेंगे और यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि किस तरह किसी देश का कनून, संविधान और रिति रिवाज स्त्री को उसके अधिकार के लिये आन्दोलित करते हैं................................................................................................................................................ स्त्री और उसके पक्ष को समझने के लिये हमें कुछ मूल तत्वों को बारीकी से समझना होगा. इन मूल तत्वों में धर्म, समाज, राज्य, राज्य स्त्री के संबन्ध, नागरिकता जैसे कुछ आवश्यक बिन्दुओं को गम्भीरता से रेखांकित करना स्त्री के पक्ष को सही मायनों में समझने में मदद करेगा क्योंकि स्त्री का पक्ष कोई एकांगी पक्ष नहीं है जिसे एक सीधी रेखा में विश्लेषित किया जा सके. यह पक्ष एक ऐसा बडा ताना बाना है जिसे समझने के लिये उस हर कोण को समझना जरूरी है जिससे मानव समाज का सरोकार है इसलिये हम सबसे पहले बात राज्य और स्त्री के संबंध और उसके इतिहास से शुरु करेंगे ताकि हम स्त्री के नागरिक पक्ष को पूरी तरह समझ पायें क्योंकि जब हम देश या राज्य की बात करते हैं तब हमें कानून, राजनीति, अर्थ और उससे जुडे अधिकारों को समझना और विश्लेषित करना जरूरी हो जाता है क्योंकि राज्य नागरिकता प्रदान करता है और नागरिक अधिकार देता है यही वजह है कि स्त्री के संबध में राज्य को समझना बेहद जरूरी है क्योंकि आज भी दुनिया के लगभग सभी देशों में स्त्रियां राज्य के सामने अपने पक्ष, अपने विचार और अपने नागरिक अधिकार के लिये आन्दोलित होते हुए एक याचक के रूप में खडी हैं इसलिये जब हम स्त्री की बात करेंगे तो हम स्त्री और राज्य के संबंध को भी समझेंगे और विश्लेषित करेंगे क्योंकि अगर राज्य स्त्री के पक्ष में सही मायने में खडा होगा तो स्त्री की स्थिति वह नहीं होगी जो अधिकतर देशों में स्त्रियों की है. दुनिया का समूचा स्त्री आन्दोलन अपने अपने देशों में स्त्रियों के स्वस्थ नागरिक अधिकारों के लिये लडाई का प्रतीक है और यह लडाई भारत में भी जारी है. यदि स्त्री उसकी उत्त्पति और इतिहास में उसके लिखित चरित्र को समझने की कोशिश की जाये तो कई आश्चर्य जनक तथ्य उभर कर सामने आते हैं और यह तथ्य यह बताते हैं कि लगभग हर समाज, हर देश, हर वर्ग, धर्म और जाति ने लम्बे समय तक अपनी स्त्री आबादी की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक अधिकार का हनन किया है. इसी तरह दुनिया के लगभग सभी समाजों, धर्मों, देशों और जातियों में लम्बे समय तक स्त्री को देखने, उसके बारे में सोचने और उसके प्रति व्यवहार करने का नजरिया कमोबेश एक खास तरह का ही रहा है. राज्य और स्त्री के संबंध को समझने और उसके इतिहास में जाने पर यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि स्त्री और राज्य के संबंध के बीच धर्म भी एक मूल तत्व है क्योंकि धर्म ने समाज को सबसे अधिक आदेशित किया है और भारतीय परिपेक्ष्य में यह आदेश अधिकतर स्त्रियों और दलितों के संबंध में ही दिये गये हैं. इसीलिये धर्म को स्त्री और राज्य के संबंध को लेकर समझना , उसको विश्लेषित करना जरूरी है. दुनिया के हर समाज में स्त्री के प्रति एक खास व्यवहार और उसकी सोच में स्त्री का अस्तित्व उस रूप में निरूपित किया गया जिस रूप में उसके बरक्स खडी आधी आबादी उसे देखना पसंद करती है. मतलब यह कि सत्ता उस आधी आबादी के पास है जो अन्य आधी आबादी को अपने हिसाब से (सुख – सुविधा) गढ सके , उसका उपयोग कर सके ,इसलिये स्त्री को देखने की एक ऐसी दृष्टि बनायी गयी जिसमें स्त्री का अर्थ है उसकी कमनीयता, स्त्री का अर्थ है उसका ममत्व और उसका सेवा भाव. इन तीनों गुण में कहीं भी स्त्री अपने स्व के लिये नहीं है. इन तीन मूल गुणों के साथ समाज में उसकी स्वीकृति ने उसे सामाजिक संरचना के पूरे ताने बाने में सामान्य और स्वस्थ नागरिकता की हैसियत से हमेशा वंचित रखा. सामान्य नागरिकता से वंचन का अर्थ है बराबरी के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों का वंचन. “राज्य’ का निर्माण मानव विकास के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण है. यह एक विकास है जिसने मानव समाज को उसके आगे के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्वरूप को विकसित करने का रास्ता दिखाया. इस पूरी परिघटना ने मनुष्य को एक ऐसी सामाजिक संरचना से परिचय कराया जो मानव समाज को एक सही राजनीतिक व्यवस्था देने में सहायक बना. जिसने मानव जीवन को एक व्यवस्थात्मक सुरक्षा प्रदान करने, उसे मजबूत बनाने में सहयोग दिया. यही वजह कि मानव ने राज्य नामक इस संस्था को ना केवल विशेष महत्व दिया बल्कि इसका उत्तरोत्तर विकास भी किया और इसे नागरिकों की सुरक्षा के हित में सुदढ भी किया. उत्तरोत्तर इन व्यव्स्थाओं ने स्थानीय मानव समूहों, उन समूहों के भौगोलिक,सांस्कृतिक और सामाजिक आधार पर नये नये स्वरूप लिये और राज्य और उसके नियम बनाये. इसीलिये किसी भी राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि राज्य अपने राज्य के प्रत्येक नागरिक को जिसमें स्त्री - पुरुष और वह भी शामिल हैं जिन्हें इन दोनों लिंगों का हिस्सा नहीं माना जाता को ना केवल सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक सुरक्षा प्रदान करेगा बल्कि उन्हें स्वस्थ नागरिकता प्रदान करेगा किंतु मानव सभ्यता के विकास के इस उपक्रम में स्त्रियां नागरिकता के इस अधिकार को पाने में ना केवल पीछे रहीं बल्कि स्त्रियों को कदाचिद इस अधिकार के योग्य भी नहीं समझा गया. मानव सभ्यता के विकास का इतिहास स्त्रियों की नागरिकता और उसके अधिकार के संबंध में ना केवल बेहद संकीर्ण रहा है बल्कि अमानुषिक और बर्बर भी रहा है. प्रागैतिहासिक काल का इतिहास यदि छोड दिया जाय तो मानव सभ्यता का लिखित इतिहास स्त्रियों के संबंध में दोहरे माप दण्डों,उसके अधिकारों के हनन की उक्तियों से भरा हुआ एक दस्तावेज है . दुनिया के लगभग हर समाज में स्त्रियों के प्रति परिवार , समाज और राज्य का व्यवहार उनके लिये एक ऐसे दुष्चक्र का सृजन करता रहा है जिससे स्त्रियों के निकलने की कवायद अभी तक जारी है. दुनिया भर में चल रहे महिला अन्दोलन इस बात का प्रमाण हैं कि आज भी अधिकतर देशों में महिलाओं के नागरिक अधिकार पूरे नहीं हैं. विश्व का लगभग हर देश इस कोशिश में लगा हुआ है कि उसकी महिला नागरिकों को घर के अन्दर समाजिक रूप से और कार्य स्थल पर असमानता, शोषण और नागरिक अधिकारों को लेकर दोहरे मापदण्डों का सामना ना करना पडे. लगभग हर देश अपने अपने यहां महिला आन्दोलन के दबाव में महिलाओं के कानूनी अधिकार को लेकर सजग हो रहे हैं और कपने अपने कानूनों में बदलाव के रास्ते तलाश रहे हैं और उनको लागू करने के सूत्र तलाश रहे हैं. देखा जाय तो यह पडताल का विषय है कि आखिर ऐसा क्यों है? क्या वजह रही है कि हर देश अपने कानूनी विकास के दौर में स्त्रियों को सम्पूर्ण नागरिक मानने में संकोच करते रहे है? माना जाता है कि २०. सदी स्त्रियों और दलितों के संबंध में एक उदारवादी सदी रही है. इस सदी ने स्त्रियों के लिये कई तरह के द्वार खोले हैं. सम्युक्त राष्ट्र संघ की स्थापना और उसके द्वारा दुनिया के विकास शील देशों पर इस बात का दबाव बनाना कि हर देश दलितों और स्त्रियों को लेकर अपने अपने देशों में बेहतरी के लिये ना केवल आगे आये बल्कि अपने अपने कानूनों को उसके हक में बनाने का प्रयास करे , इस बात ने महिलाओं तथा दलितों को सांस लेने की जगह दी है किंतु महिलायें अभी भी लगभग हर देश में अपने अधिकारों और स्वस्थ वातावरण और नागरिक अधिकारों के लिये लड रही हैं. भारत जैसे विकासशील देश के अलावा उन देशों की महिलायें भी अपनी लडाई लड रही हैं जिन्हें हम विकसित देशों की श्रेणी में रखते हैं. देखा जाये तो दुनिया भर की महिलाओं की स्थिति सामाजिक, राजनीतिक रूप से कमोबेश एक सी है हां आर्थिक पटल पर जरूर थोडा विभेद है किंतु अगर आर्थिक स्तर पर अगर बारीक पडताल की जायेगी तो शायद ज्यादा अंतर देखने को नहीं मिलेगा. स्त्री की इन स्थितियों को समझने कि लिये नये दौर पर बात करने से पहले हम पुरानी राजनीतिक व्यव्स्थाओं में महिलाओं की स्थिति पर बात करनी बेहद आवश्यक है ..............................भारत के संदर्भ में बात करने की कोशिश करेंगे.

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